देश की तरक्की विकास और एकता में ही निहित है , पढ़ें नकी हैदर का लेख
June 5, 2017 1:13 pm
भारत जी भारत वही भारत जो दुनिया में एक लौता इस तरह का मुल्क है जिसको तीन नामों से जाना जाता है यही वही मुल्क है जिसमें दुनिया की सबसे ज्यादा जातियां निवास करती है यही वो वतन है जहां हर पचास किलोमीटर पर भाषा बदल जाती है खाने की किसमे बदल जाती है कपड़ा पहनने का ढंग बदल जाता है अगर कुछ नहीं बदलता है तो वो है यहाँ के नागरिक की राष्ट्रीयता इस मुल्क में आजादी के समय ही न जाने कितने रियासतें थी जिनके अपने अपने अलग-अलग कानून थे सब को एक साथ लाना शाएद उस वक्त के तत्कालीन प्रधानमंत्री और ग्रह मंत्री के लिए कोई आसान काम नहीं था लेकिन फिर भी तब के राजनेताओं ने रणनीति से किसी रियासत को भारत में मिलाया तो किसी रियासत को सेना के दम पर गणतंत्र में शामिल करवाया और एक अखंड भारत को एक धागे में पीरोने का काम किया हम आज जिस भारत को देखते है शाएद आजादी के समय इस तरह के भारत की परिकल्पना को असली जामा पहनाना इतना आसान काम नहीं था मुल्क इस साल आजादी के सत्तर बरस पुरे करेंगा लेकिन हम मौजूदा जो सियासत देख रहे है क्या आगे चलकर ये पूरे भारत को एक रख पाएगी इस पर आज की राजनैतिक सत्ता पाने की तेजी को देखते हुए इतना आसान नहीं लगता है ये इसलिए लिख रहा हूँ कयोंकि पिछले तीन से चार साल में मुल्क की अदुंरीनी राजनीति का स्तर अपने निचले पाएदान पर है केवल सत्ता पाने के लिए सन 2012 से ही मुल्क के एक हिस्से के तत्कालीन मुख्यमंत्री देश के लोगो को एक नए भारत के सपनों की इबारत दिखाते थे लेकिन तीन साल गुजर जाने के बाद देश की सियासत ने आम जनता को गाय बकरी मोर में उलझा कर रख दिया है यहाँ पर एक मिसाल देता चलूँ की मान लीजिए आज से साठ सत्तर बरस पहले हमारे घर के पूर्वजों ने तब की हालात को देखते हुए कोई फैसला किया हो और वो उस समय सही निर्णय रहा हो तो क्या हम आज उस फैसले को लेकर अपने पूर्वजों की घर पर बेइज्ज़ती करेंगे शाएद एक सभ्य परिवार में तो ये बिलकुल भी नहीं होगा तो यही से मान लीजिए कि नेहरू या पटेल जी ने उस समय कोई निर्णय लिया हो जो कि तत्कालीन समय के हिसाब से एक दम सही निर्णय रहा हो तो क्या आज के किसी भी सभ्य नागरिक को उनकी बेइज्ज़ती करनी चाहिए आज हमारे मुल्क ने सत्तर बरस मे काफी तरक्की की है इसको नजरअंदाज करना वक्त की रफ्तार के साथ मेरी कलम की अपने आप में एक बेइज्जती ही होगी लेकिन एक दल के नेता ने 2014 का चुनाव जीतने के लिए मुल्क को जापान और चीन से आगे निकल जाने के सपनों को दिखाए तो वही मुल्क का खून खूब खौल उठे इसलिए पड़ोसी पाकिस्तान की बर्बादी के सपने तक दिखा डाले लेकिन सत्ता पाने के बाद मुल्क में न तो जापान जैसी गगनचुम्बी इमारतों की कोई रुप रेखा बनी और न ही पाकिस्तान की ईट से ईट बजाई गई उल्टा सरकार केवल कुछ एक चुनिंदा कारपोरेट घारानो के पाँव की पौजेब बन गई जहां एक ओर जनता को लगा कि मुल्क की सबसे बड़ी गद्दी पर बैठने वाला शख्स हमारे बीच से है तो वो हमारी जैसी सोच का होगा उसका भी पाकिस्तान से युद्ध करने का मन करता होगा वो भी घरेलू चीजों की कीमत को कम करने का दिल रखता होगा लेकिन ये क्या हुआ भाई??
अचानक दिल्ली पहुँचते ही वो शख्स खामोश क्यो हो गया है अचानक वो शख्स मौन व्रत पर क्यो चला गए कि इसी बीच सड़क किनारे वाले मोहन के रेडियो से कुछ आवाज़ सुनाई दी तो सारी भीड़ दौड़ पड़ी ठीक उसी तरह जैसे कभी नेहरू जी इंदिरा जी रेडियो पर बोला करते थे तो लोग भावुकता के साथ सुनते थे तो लोगों को लगा कि “मन की बात” में अपने लिए कुछ अच्छा होगा लेकिन ये क्या उस रेडियो से तो खोदा पहाड़ निकली चुहिया वाला हाल हो गया खैर लोग कुछ सभंल पाते की तभी कारपोरेट जगत के लोगों ने टीवी शो के माध्यम से लोगों का DNA करना शुरू कर दिया और उस DNA से इतना ज़हर गोला जाने लगा कि लोग आज गाय बकरी मोर में उलझ कर रह गए है क्यो आखिर कोई दिल्ली वाले से नहीं पूछता कि जापान वाली ट्रेन कहा है? कोई क्यो नहीं पूछता कि भाई गरीब के लिए पक्का घर कहा है ?
दिल्ली का सियासी तौर पर कमजोर होना मुल्क के दो हिससो का बड़ा आधार बन सकता है तो वही उत्तर भारत के मूल निवासी जिन्हे हम दलित समाज बोलते है उनमें भी अब इंकलाब की चिंगारी उठने लगी है और आप आज किसी को अपनी आवाज़ उठाने से नहीं रोक सकते है तो दिल्ली जाग जाओ इससे पहले कि देर हो जाए कहीं इतनी देर न हो जाए कि आप के लिए इस मसले को सुलझा पाना भी नामुमकिन हो जाए तो इसलिए आप लोगों को खाने के आधार पर बांटना बंद कर दीजिए वर्ना ये आपकी लगाई चिंगारी कल कोई बड़ा रुप ले सकती है
( लेखक समाज सेवी हैे और समाजवादी पार्टी से जुड़े हैं, ये उनके विचार हैं )