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जन-मन हुआ बेहाल, रोज़मर्रा की ज़रूरतों पर लगा ग्रहण : पढ़ें , वरिष्ठ पत्रकार अजीत पाँडेय का लेख

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अजीत कुमार पाण्डेय, वरिष्ठ पत्रकार-       दिल्ली

ajit.editor@gmail.com

 

बीते दिनों प्रधानमंत्री ने 500 व 1000 के बड़े नोट बंद कर देने से हालात संभलने की बजाय बिगड़ते जा रहे हैं, जगह-जगह लोगों की लाइनें लगी हुई हैं। छोटे नोटों की किल्लत के चलते रोजमर्रा की जरूरतें पूरा करना मुश्किल होता जा रहा है। अचानक शुरू हुई टैक्स कर्मचारियों की छापेमारी जैसी कार्रवाई ने व्यापारियों में ऊहापोह की स्थिति पैदा कर दी है। काला धन निकलवाने के लिए प्रधानमंत्री ने 8 नवम्बर की रात अचानक राष्ट्र के नाम संदेश में 500 व 1000 रूपए बंद करने की घोषणा की थी, साथ ही साथ उन्होंने जनता से अपील की थी कि वह दु:खी न हों। बड़े नोटों के बंद होने से आने वाली परेशानियों से निपटने के लिए पर्याप्त कदम उठाए जा रहे हैं, लेकिन अपर्याप्त तैयारी तथा सरकारी मशीनरी की अकर्मण्यता के चलते वही होने लग गया, जिसकी आशंका थी। मंशा अच्छी होते हुए भी, क्रियान्वयन में गड़बड़ी के कारण देशभर में अफरा-तफरी मच गई है। घोषणा की गई थी कि एक दिन बाद जब बैंक खुलेंगे तो प्रति खाता दस हजार रूपये निकाले जा सकेंगे, लेकिन बैंकों के पास नए नोट पर्याप्त संख्या में पहुंचे ही नहीं। पहुंचे भी तो बड़ा हिस्सा पिछले द्वार से प्रभावशाली लोग और कर्मचारी ले गए। आम जनता दिन भर धूप में लाईन बना कर खड़ी रही। यह भी कहा गया था कि कोई भी व्यक्ति किसी भी बैंक से 4000 रूपए बदल सकता है। ज्यादातर बैंकों ने इसकी व्यवस्था ही नहीं की। यही हाल डाक घरों का रहा। फार्म भरने, आईडी की फोटो कॉपी देने जैसी औपचारिकताएं बढ़ा दी गई, बताया गया था कि डेयरी बूथों, पेट्रोल पंपों, दवा की सहकारी दुकानों, रसाई गैस एजेंसियों, रेलवे स्टेशनों और बस स्टैंडों पर बड़े नोट 11 नवम्बर तक चलेंगे। नोट तो चले पर पूरी कीमत पर ही। जो भी 500 या 1000 रूपए से कम का सामान लेना चाहता, उसे स्पष्ट तौर पर मना कर दिया जाता। एटीएम दो दिन बाद खुलने की घोषणा थी। ऐसा लगा कि आज राहत मिलेगी लेकिन बहुत से एटीएम खुले ही नहीं। खुले भी तो उनमें मात्र सौ रुपये के नोट भर दिए गए जो बहुत कम संख्या में आए और थोड़ी ही देर में खाली हो गए। सबसे ज्यादा मुसीबत शादी-ब्याह वाले घरों में आई। लोगों ने पाई-पाई जोड़ कर या उधार लेकर शादियों के लिए जो बड़े नोट जमा किए थे, वे रद्दी कागज के टुकड़ों में बदल गए। देवउठनी एकादशी पर देशभर में लाखों शादियां होती हैं। शादी बिगड़ जाने के कारण लाखों मां-बाप आज खून के आंसू रो रहे हैं। निजी अस्पतालों ने छोटे नोट न होने पर इलाज से इंकार कर दिया। यहां तक कि अंतिम संस्कारों में भी परेशानी खड़ी हो गई। जिन घरेलू महिलाओं और बुजुर्गों ने छोटी-छोटी बचत कर आड़े वक्त के लिए पैसा जमा किया था, वे अपने आप को अपराधियों की श्रेणी में खड़ा पाने लगे। इन दिनों में छोटे नोटों और सोने का कालाबाजार परवान पर चढ़ गया। सरकारी मशीनरी ने रोज परेशान हो रही जनता को राहत पहुंचाने के लिए कुछ नहीं किया। न घोषणाओं की अवहेलना की निगरानी की गई, न व्यवस्था बनाने को कुछ किया गया। ज्यादातर सरकारी अधिकारी अपने खुद के कालेधन को सफेद करने की जुगत में जुटे रहे। जनता को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया। रही-सही कसर बीते दिनों सुबह-सुबह आयकर और बिक्री कर विभागों की बाजारों में निकली टोलियों ने पूरी कर दी। बिल बुकों पर ठप्पा लगाने की छापेमारी कार्रवाई से पूरा व्यापारी वर्ग सकते में आ गया। देखते-देखते बाजार बंद हो गए। पहले ही परेशानी से गुजर रही आम जनता के लिए कोढ़ में खाज जैसी स्थिति पैदा हो गई। 8 से 10 नवम्बर तक ये टोलियां क्यों निष्क्रिय थीं? व्यवस्थित क्रियान्वयन के अभाव में एक साहसिक योजना किस तरह अराजकता पैदा करने की दिशा में मुड़ सकती है, पिछले तीन दिन इसके गवाह है। आवश्यकता इस बात की है कि केन्द्र और राज्य सरकार तीन दिन की स्थिति की आपात समीक्षा करे और योजना की आड़ में जेबें भर रहे मुनाफाखोरों और भ्रष्ट अधिकारियों को सींखचों के पीछे पहुंचाए। ऐसे कदम उठाने पर ही जनता को राहत मिलेगी। वर्ना देखते-देखते हालात काबू से बाहर हो जाएंगे। लोगों को भी चाहिए कि वह पैनिक में आकर ज्यादा से ज्यादा पैसा निकलवाने की होड़ में नहीं लगे। जरूतमंदों की सहायता के लिए सामाजिक स्तर पर प्रयास भी जरूरी है।

 

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके विचार हैं )

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