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धर्म और राजनीति का लोहिया के मायने ! प्रसिद्ध लेखक मणेन्द्र मिश्रा “मशाल” की कलम से ।

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लोहिया के निधन को पचास वर्ष पूरे हो गये.फिर भी जिस समता और संपन्नता आधारित समाजवादी समाज की कल्पना डॉ लोहिया ने किया था,वो अधूरा ही रह गया.बीते पचास वर्षों में राजनीति ने कई बार करवट ली है.समूचे देश में कमोबेश सभी विचारधाराओं के दलों को सत्ता में आने का अवसर मिला लेकिन लोहिया द्वारा वर्णित सप्तक्रांति की चुनौतियाँ आज भी सभ्य समाज के सामने और उलझे रूप में खड़ी है.ऐसे में लोहिया के जन्म स्थान वाले उत्तर प्रदेश के वर्तमान सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में लोहिया विचार को समझना सामयिक और प्रासंगिक जान पड़ता है.

धर्म और राजनीति का जो मिला जुला स्वरुप राजनीति में देखने को मिल रहा है.इसको लेकर आम जनमानस सहित समाज का नेतृत्व करने वाले लोगों में स्पष्टता होना जरुरी है.जिसके लिए लोहिया के आडम्बरहीन और तार्किक विचार का प्रचार-प्रसार भी आवश्यक है. उत्तर प्रदेश में बीते कुछ दिनों से नई सरकार के गठन के बाद राम को लेकर चर्चा में अधिकता आई है.लेकिन यह भाव उग्र और कट्टर की छवि लिए प्रखर हो रहा है.ऐसे में लोहिया का रामायण मेला विषयक लेख को समझना उत्तर प्रदेश जैसे विविधता वाले राज्य के लिए बेहद जरुरी प्रतीत होता है.लोहिया ने

 

1961 में रामायण मेला कराने की योजना बनायीं थी लेकिन किन्ही कारणों से यह पूरी नही हो सकी.इस मेले के द्वारा लोहिया लोक-मानस का सांस्कृतिक परिष्कार करने की कल्पना किये थे.दरअसल यह मेला धार्मिक न होकर एक लोकधर्मी मेला का धर्म और राजनीति को लेकर लोहिया की एक अलग राय थी.जिसके अनुसार धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म है.वे धर्म के सांस्कृतिक अर्थो में परिवर्तन चाहते थे.लोहिया के मेले का आशय रामकथा या रामलीला नही था.बल्कि वे तुलसी की रामकथा को केंद्र में रखते हुए कंबन की तमिल रामायण,किर्तिदास की बंगला कंबोज,हिंदेशिया और तुर्की रामायण पर भी चर्चा चाहते थे.इस मेले में उन्होंने कर्नाटक के श्री पुटप्पा,आंध्र के विश्वनाथ सत्यनारायण,डॉ कामिल बुल्के,डॉ रघुनाथ सिंह,रामस्वरूप वर्मा के साथ राजगोपालाचारी,राजनारायण और नेहरु को भी आमंत्रित करने की योजना बनायीं थी.रामायण मेला निबंध के माध्यम से लोहिया ने यह स्पष्ट किया कि कैसे धर्म में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए बिना कटुता के उसकी रूढ़ियों पर कड़ा प्रहार किया जा सकता है.रामायण मेले में लोहिया की कल्पना एक ऐसे अखिल भारतीय कवि गोष्ठी की थी,जिसमें हिंदी के अलावा तमाम भारतीय भाषाओँ के कवियों की कवितायेँ सुनी-सुनाई जाती,जिसमें हिंदी के अलावा अन्य भारतीय भाषाएँ भी शामिल होती.लोहिया इस गोष्ठी में चन्दबरदाई,कबीर,जायसी,खुसरो,रहीम से लेकर निराला तक की कविता को उनकी ही वेशभूषा में पढ़ाना चाहते थे.साथ ही रुसी कवि पास्टरनाक के साथ होमर,वरजिल,वाल्मीकि और राम,कृष्ण,ईसा एवं मुहम्मद की कथाओं में समानता व असमानता पर भी चर्चा चाहते थे.लोहिया के अनुसार इस मेले में गरीबों के रहने की मुफ्त व्यवस्था होने के साथ इसकी अगुवाई औरतों और शूद्रों से करने की योजना थी.जिससे यह मेला समाज के दबे कुचले और वंचित समाज की चेतना को जागृत करते हुए समतामूलक समाज के निर्माण का रास्ता मजबूत कर सके.

लोहिया के धर्म और रामायण मेला विषयक विचार को वर्तमान में जानने की इसलिए सबसे अधिक आवश्यकता है क्यूंकि जहाँ एक ओर लोहिया आजाद भारत के एकमात्र ऐसे एकलौते मौलिक चिन्तक हैं जिनके विचारों का गाँधी,अम्बेडकर,सुभाष चंद्र बोस सहित नेहरु भी असहमति के बाद भी सम्मान करते थे.वहीं दूसरी ओर लोहिया की जनपक्षधरता हाशिये के लोगों के लिए निर्विवाद और सर्वमान्य थी.देश-दुनिया में जिस तरह धर्म की आड़ में राजनीति करते हुए सत्ता प्रतिष्ठानों पर कब्ज़ा करने का खेल चल रहा है साथ ही अघोषित एजेंडे के तहत एक समाज में विभिन्नता के इतर एकरूपता लाने की कवायद हो रही है,वह लोकतान्त्रिक समाज के लिए उचित नही है.आर्थिक विषमता सहित अनेक मोर्चो पर गैर बराबरी कम होने का नाम ही नही ले रही.ऐसे में लोहिया के विभिन्न विषयों पर आधारित विचार से अनेक समस्यायों का समाधान मिल सकता है । बीते वर्षों में देश में मजबूत विपक्ष का अभाव बढ़ता चला जा रहा है.ऐसे में असहमति की आवाज उठाने का संकट पैदा हो रहा है.लोहिया का जीवन हमारे सामने एक प्रेरणा पुंज की भांति है कि किस तरह सदन में और सदन के बाहर मामूली संख्या बल होने के बाद भी तत्कालीन पूर्ण बहुमत वाली नेहरु सरकार को भी जनता के मुद्दे पर मजबूत घेराबंदी का सामना करना पड़ा.साथ ही कमजोर विपक्ष होने के बाद भी जनविरोधी नीतियों को बदलना पड़ा.लोहिया हमारी पीढ़ी के लिए एक उदाहरण हैं.जिन्होंने समाज से जुड़े सभी मुद्दों कला,संस्कृति,साहित्य,आर्थिकी,विदेश नीति,धर्म,संगठन,राजनीति जैसे अनेक मुद्दों पर स्पष्ट विचार देकर समाज के प्रति एक राजनीतिज्ञ की जिम्मेदारी का शानदार उदाहरण प्रस्तुत किया था.लोहिया ने राजनीति में युवजन के माध्यम से नौजवानों की ऐसी फौज तैयार किया जो बीते पाँच दशकों से समाजवादी मूल्यों और लोहिया के सपनों के भारत की लड़ाई लड़ रहे हैं.उनके जन्मदिन अवसर पर समता और संपन्नता आधारित समाजवादी रास्ते पर चलना ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजली होगी.

 

 

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