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धर्म निर्पेक्षता का राजनीतिक सच ! पढ़ें, वरिष्ठ स्तंभकार अनूप के. त्रिपाठी का लेख
March 26, 2017 4:05 pm
अनूप के, त्रिपाठी …प्रभाव इंडिया न्यूज के लिए
डॉ० लोहिया ने कहा था,’जब सिद्धांत,निजी अथवा गिरोह स्वार्थ का बंधक बन जाता है तो उसका और सच का कोई स्थायी और व्यापक सम्बन्ध नहीं रह जाता और उसी से पाखण्ड फैलता है।’
यह देश का दुर्भाग्य रहा कि ‘क़ानून का शासन’ के जरिये एक आदर्श लोकतांत्रिक समाज की स्थापना के लिए जो भी सिद्धांत प्रतिपादित किये गए,चाहे वो धर्मनिरपेक्षता हो या सामाजिक न्याय,वे अपने उद्देश्य तो नहीं पूरा कर सके पर भटककर ‘निजी अथवा गिरोह स्वार्थ’ के बंधक जरूर बन गए जिसका सीधा परिणाम आज का विषाक्त और प्रतिक्रियात्मक माहौल है!!
‘खाया-पीया कुछ नहीं,गिलास तोड़ा बारह आना’ जैसी उक्ति धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय की कथित लड़ाई लड़ने वालों पर सटीक बैठती है जहां कि उन्होंने इन सिद्धांतों का उपयोग अपने स्वार्थों के लिए और दूसरे पक्ष को चिढ़ाने के लिए करके अल्पसंख्यक और पिछड़ों-दलितों को समाज की मुख्यधारा में लाने के बजाय इन्हें अलग-थलग करने की रूप-रेखा तैयार कर दी।धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के नाम पर अपना गणित चमकाने के साथ-साथ लगातार चिढ़ाने और कुंठा और हीनभावना ग्रस्त करने का प्रयास जाने-अनजाने होता रहा जिसकी प्रतिक्रिया आज सामने है।इस जद्दोजहद में दलितों-पिछड़ों और मुस्लिम समाज का नुक्सान हुआ जहां वास्तव में इनका भला तो कुछ नहीं हुआ पर फायदे के नाम पर बदनामी खूब हुई जिसने एक वर्ग को लगातार कुंठित किया,जिसने प्रतिक्रिया के लिए मजबूर किया…धर्मनिरपेक्षता के एकांगी होने के खतरे भयावह हैं।
धर्मनिरपेक्षता जैसी चीज भारतीय संस्कृति की आबोहवा में घुली-मिली हुई है,नुक्सान हुआ इसके गिरोह-स्वार्थ के हाथ बंधक बन जाने से!! इस देश ने रहीम,जायसी,मिर्ज़ा ग़ालिब जैसों को बिना किसी पूर्वाग्रह के अपनाया और एक अरसे तक हिन्दू-मुस्लिम शांति से साथ रहे हैं,पर गिरोहों के राजनीति और स्वार्थ ने मामला इस हद तक विषाक्त कर दिया।आज भी विरला ही कोई हिन्दू होगा जो किसी मुसलमान को उजाड़ने में इच्छुक होगा,यह भारत की संस्कृति में ही नहीं है।मामला राजनीति और धर्मनिरपेक्षता को स्वार्थ हित के साधन में उपयोग करने से बिगड़ा।
देश के बंटवारे के दौरान के हिन्दू-मुसलमान के बीच के जहरीले माहौल में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने कहा था,'(वह) मुसलमान मूर्ख है जो हिंदुओं से अपनी रक्षा के ढाँचे की मांग करता है,और (वह) हिन्दू उससे भी बड़ा मूर्ख है जो उसे इसके लिए मना करता है।’ क्योंकि भारत की संस्कृति में हिन्दू कभी आक्रामक नहीं रहा है इससे बहुसंख्यक द्वारा अल्पसंख्यक को असुरक्षित करने की बात सिरे से खारिज हो जाती है,तो सुरक्षा मांगने-देने का कोई अर्थ ही नहीं!
आज़ाद ने ही कहा था कि ‘हिन्दू बहुसंख्यक हैं इस बात का कोई मतलब नहीं है,मुसलमान को हिन्दू से डरने की कोई ज़रुरत ही नहीं।’
मामला राजनीतिक स्वार्थ-साधन में बिगड़ जाता है,अन्यथा भारत में किसी प्रकार के साम्प्रदायिक विषाक्तता की कोई जगह है ही नहीं,यह हमारी संस्कृति नहीं रही है।पर ‘लेने-देने’ और गिरोह-स्वार्थ साधन में धर्मनिरपेक्षता स्वार्थ की बंधक बन जाती है और पाखण्ड फैलाने का जरिया भी!!
( लेखक सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों के जानकार हैं, यह उनके निजी विचार हैं )