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ईमानदार और सच्चे राजनीतिज्ञ थे मधु लिमये , बता रहे हैं समाजवादी विचारक मणेन्द्र मिश्रा ‘ मशाल’
May 1, 2017 3:35 am
पचास के दशक में जब डॉ राम मनोहर लोहिया ने नेहरू और कांग्रेस की जन विरोधी नीतियों का विरोध करने का संकल्प लिया।उस समय उनके अनन्य वैचारिक सहयोगी के रूप में मधु लिमये का नाम तेजी से उभरकर सामने आया।जिनके सिद्धांतवादी एवं जनप्रतिबद्ध राजनीति के लोहिया भी कायल थे।उसी दौरान प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना के समय लोहिया जनरल सेक्रेटरी जबकि मधु लिमये,अशोक मेहता और सादिक अली के साथ जॉइंट सेक्रेटरी बनाये गए।मधु को लेकर लोहिया के मन में विशेष सम्मान था, जिसका उदाहरण गाजीपुर में आयोजित प्रजा समाजवादी पार्टी के प्रदेश कार्यकारिणी में मधु लिमये को आमंत्रित करने के निर्णय से मिलता है ।जबकि 1955 में मद्रास के अवाड़ी अधिवेशन में कांग्रेस के प्रस्ताव पर प्रजा समाजवादी पार्टी के बम्बई अध्यक्ष अशोक मेहता के समर्थन का कड़ा विरोध करने की वजह से मधु लिमये को पार्टी से निलंबित कर दिया गया था।इस आमंत्रण के बाद प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष की हैसियत से आचार्य नरेंद्र देव ने गाजीपुर के प्रादेशिक सम्मेलन पर रोक लगा दी।बावजूद इसके सम्मेलन आयोजित हुआ और इसमें लोहिया के निर्देश पर केंद्रीय नेतृत्व की निंदा की गयी।जिसके फलस्वरूप लोहिया को भी निलंबित कर दिया गया।इस घटनाक्रम से समाजवादी आंदोलन में मधु लिमये के महत्व को बखूबी समझा जा सकता है।
मधु लिमये का जन्म 1 मई 1922 को पूना में हुआ था।इनके पिता श्री राम चन्द्र महादेव लिमये थे।प्रो चंपा लिमये इनकी जीवनसंगिनी बनी।जिन्होंने सौहार्द के नाम से अपने पति के लेखों का महत्वपूर्ण संग्रह प्रकाशित करवाया।फर्गुसन कॉलेज में पढ़ाई छोड़कर छात्र जीवन मे ही मधु लिमये स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े और अठ्ठारह वर्ष की अवस्था मे 1940-41 में उन्हें कारावास की पहली सजा हुई।’भारत छोड़ो आंदोलन में भूमिगत रहते हुए महाराष्ट्र में उन्होंने आंदोलन का नेतृत्व किया,बाद में पकड़े गए और लंबे समय तक जेल रहे।इस पहचान ने उन्हें समूचे देश में ख्याति दिलाई। आजादी के बाद गोवा मुक्ति आंदोलन का उन्होंने लोहिया के साथ सफलतापूर्वक संचालन किया जिसकी वजह से उन्हें बारह साल की सजा हुई।जो उनके संघर्षशील व्यक्तित्व की बानगी हैं।
मधु लिमये चार बार लोकसभा के सदस्य रहे और अत्यंत प्रखर सांसद के रूप में विख्यात हुए।संसद में उनके प्रवेश के साथ ही सत्ता दल के मंत्रियों के माथे पर बल आ जाता था।संसदीय नियमों के मर्मज्ञ मधु लिमये लोकसभा में गरीबों-मजलूमों के आवाज थे।उनके सांसद रहते प्रायः सभी महत्वपूर्ण बिल बिना बहस के पास नही हो पाता था।उनका हमेशा प्रयास रहता था कि कैसे संसद की छवि आम जनमानस में जनता की बुनियादी समस्यायों के समाधान केंद्र के रूप में मजबूत किया जा सके।इसीलिये मधु लिमये आजीवन जनप्रतिनिधि होने की मर्यादा,राजनैतिक सुचिता और ईमानदारी के पर्याय बने रहे।उनका मानना था कि जनता ने जिस भरोसे और विश्वास से आपको चुना है,उस पर खरे उतरने के लिए नैतिक चरित्र बेदाग होना चाहिए।तभी नेताओं की कही गयी बातों का असर जनता पर पड़ेगा।प्रारम्भ से अंत तक वे समाजवाद के प्रति समर्पित रहे और गैरबराबरी एवं राजनीतिक तिकड़मों के खिलाफ आवाज उठाते रहे।
1982 में खराब स्वास्थ्य की वजह और मूल्य आधारित राजनीति की गिरावट के कारण राजनीति को अलविदा करने के बाद पूरा समय लेखन में लगाते रहे।जिसके परिणामस्वरूप जीवन के अंतिम दशक में तीस से अधिक और कुल मिलाकर लगभग साठ पुस्तकों का लेखन करने का काम किया।जो राजनीति सहित समाज के अन्तर्सम्बन्धों को समझने की दिशा में कारगर साहित्य हैं।जेपी आंदोलन के विस्तार और सम्पूर्ण विपक्ष की एकता स्थापित करने में मधु लिमये की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही।उन्होंने जनता पार्टी की सरकार में शामिल विभिन्न दलों के प्रतिनिधियों की दोहरी पार्टी सदस्यता का कड़ा विरोध किया एवं इसके स्थान पर इकहरी सदस्यता की वकालत की।आपातकाल के दौरान मीसा के अंतर्गत जुलाई 1975 से फरवरी 1977 तक वे मध्यप्रदेश के विभिन्न जेलों में रहे।इसके विरोध में उन्होंने पांचवें लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया।
मधु लिमये ने विचार की राजनीति करने वाले नौजवानों की एक लंबी फेहरिश्त तैयार किया।वो नौजवानों को हमेशा सिद्धांत आधारित राजनीति के लिए प्रेरित करते रहते थे।घर पर आए अतिथियों को चाय अपने हाथों से ही पिलाते थे।पुराने सम्बंधो का वे बखूबी ख्याल रखते थे।लोहिया के निधन के बाद उनके घरेलू सहयोगी रहे शोभन का उन्होंने विशेष ख्याल रखा।समसामयिक मुद्दों पर पत्राचार करना उन्हें बेहद पसंद था।वे आजीवन अपने सिद्धांतों से समझौता नही किये और जैसे ही लगा कि राजनीति में सत्ता पर काबिज रहने की संस्कृति बलवती हो गयी है, सक्रिय राजनीति को छोड़ने में थोड़ा भी विलम्ब नही किये। प्रमुख राजनीतिक व्यक्तियों के विषय मे उन्होंने समग्रता से गंभीर लेख लिखा है,जो नई पीढ़ी के लिए अमूल्य दस्तावेज की तरह हैं।आज की राजनीति में उनको याद करते हुए हम सभी को बेपटरी होती राजनीति को सैद्धान्तिक बनाने में हस्तक्षेप करना चाहिए,यहीं उस महामानव को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
( मणेंद्र मिश्रा ‘मशाल’ , समाजवादी अध्ययन केंद्र के संस्थापक हैं )