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….यूँ ही कोई बेवफा नहीं होता !
November 23, 2016 1:34 pm
डॉ. मनीष पाण्डेय
एक झटके में नोटों की सोनम बेवफ़ा हो गई। हिंदुस्तान का मर्दवादी माइंडसेट उछल गया कि नई सोनम के रस्ते खुले हैं, मगर अफ़सोस कि लाइन जरा लंबी सी हो गई। कभी-कभी लगता है कि भारत के समाज की याददाश्त बड़ी कमजोर सी है। माना भी यही जाता है। यहाँ के पुरखे इतिहास ही नहीं लिखते थे।भाई जेनेरेशन गैप का मामला भी तो मुद्दा है। अनुभव का ऐसा दम्भ! ये नए लौंडे क्या करेंगे भला! अब इस पर इतिहास लिखते तो बात छिपाने से न छिपती…! गा दिया कुछ ऐसी गाथाएं, जिसके आदर्श किसी औरी दुनिया के। सोंचो कौन छुएगा उस ऊँचाई को, फिर निकालो फ्रुस्टेशन अगली लाइन पर। उसमें भी सोनम तो बड़ी आसान टार्गेट है, नोटों पे लिखने जैसा! सूचना इतनी सहज़ बहती है कि अब तो दस बीस दिन से लंबा न सोंचो। इससे लंबे दिन कोई सोनम वफ़ा हो ही नहीं सकती। भाई ग्लोबलाइज दुनिया है, यहाँ सामाजिक-आर्थिक संबंधों का पूरी दुनियां तक विस्तार है और दुनियाँ बड़ी चौड़ी है। गुम होने का ख़तरा तो है ही। गुम होना भी बेवफ़ाई है।लोग बेवफ़ा है। घटनाये बेवफ़ा हैं। जड़वत समस्या भी बेवफ़ा हो जायेगी, ये दुनियां ही कुछ ऐसी है। ख़ुशी काफ़ूर हो गई है। डर तो अब लग रहा है, जब सोनम चली गई और हाथ खली रह गए।बरसों से संजोया था। कुछ लुट सा गया है। खीझ तो आ ही रही है। अभी जीवन का एक पड़ाव भी नहीं तो नहीं बीता था। एक आंद्रे गुंदर फ्रैंक वर्ल्ड सिस्टम थ्योरी में कहता था कि कुछ केंद्र में बैठ मौज़ ले रहे बाकि बहुतायत किनारे बैठ मजे उठाने का भ्रम भर पाले हैं। पहले माल तो तिज़ोरी पे बैठा ही लेगा लेकिन माहौल ऐसा लिबरल होने का बनाएगा कि सबको तो मौका है।लूट लो खुली छूट है पर लुटने को बचा कौन? सोनम तो ग़ायब, अब लूटोगे क्या? चेन रिएक्सन का खतरा है। कुछ धुरी वाले कुंडली जमाए बैठे थे लिबरल, डेमोक्रेटिक, सेक्युलर और जाने क्या क्या, फ़िर कुछ हाशिये से उठते हैं, दक्षिण की तरफ से। कहीं मोदी तो कहीं ट्रम्प। कहीं ब्रेक्जिट का माहौल तो कहीं नेशनलिज्म का ख़ुमार चढ़ा है। जड़ता के ख़िलाफ़ क्रांति कर देने वाले फ़्रान्स में भी नेशनल फ़्रंट की मरीन ली पेन सोनम के गायब होने की नौबत न आने के दावे के साथ सबको दबाते हुए बढ़त बनाये हुए है। सोनम तो गायब होगी ही जब दुनियाँ भर के लिबरल्स और ग्लोबलाइज ठोकने का दावा करने वाले धूर्त और दोमुहे निकले।
घनी दाढ़ी बालों वाले बाबा को कितनों ने कोसा था, तुम्हे कौन अब पूछेगा? नई दुनियाँ बनेगी जहाँ सम्पति इतनी इफ़रात होगी कि संभाले न संभलेगी, तब भला कौन सामूहिक स्वामित्व के दावे को खलिहर बैठा होगा। 25 साल ही तो हुए उसे धकियाए, कोई टुकड़े हुआ टुकड़े हुए,कोई पाला बदला, कहीं कोने में अरसे बाद मुस्कराया होगा। चेले तो उसके निकम्मे ही निकले। पाला बदल बदल सोनम के चक्कर में चोले बदलते रह गए। बाबा की मुस्की देख थोडा दम तो भरा। क्रांति अब आएगी! पब्लिक खुनियायी है। मगर लोचा किये बैठे हैँ दिल्ली से बंगाल तक के सिपहसालार। क्रांति की मशाल पे ही कब्ज़। ख़ैर अब दूसरों की रोज़ी-रोटी छीनने में किसी को शर्म ही कहाँ आती है। ख़ूब लुटाया। खाया- पीया मौज़ किया। वैदिक दम्भ से भरे समाज ने बड़ी मुश्किल तो अपनी बचाई गठरी खोली थी। चार्वाक प्रासंगिक हुआ था। बहुतों के पास बांधने को थी ही नहीं फिर भी उत्सव मचाये हुए थे। लेकिन कब तक। बहुतों को बर्दाश्त नहीं हुआ। ज़माना बदलने लगा। सफ़ेद दाढ़ी वाला नया बाबा गठरी की वैल्यू ही ख़त्म कर दिया। बाहर से लाने वाला था किसी करमजले ने बहका दिया। बहुत खर्च कर लिए अब बचाओ! भाई देश की सीमाएं सीमाएं होती हैं। घर की देहरी खुली अच्छी नहीं होती। हिंदुस्तान से लेके यूरोप-अमेरिका तक सहमति में सर हिला रहे हैं। सब अपने अपने घर रहो, अपना काम करो,बाज़ार करो। वहीँ बनाओ वहीँ बेंचों। बहुत हो चुका कूद फांद। अपनी सोनम अपने अपने हाथ!
और हाँ, शुक्र करो कि नारियों की बाइबल लिखने वाली सिमोन जिंदा नही वर्ना खींच लेती ज़बान। बेवफ़ा कहने का ठेका तुम मर्दों ने उठा रखा है। कभी फ़ुर्सत मिले तो सोंच लेना कौन है बेवफ़ा। सोनम है बेवफ़ा या तुम्हारे चश्मे धूल फंके हैं। करें भी क्या? उनकी मज़बूरी भी तो है। सपनों की दुनियाँ में जीने वाला मिडिल क्लास कहाँ निकाले अपना फ्रस्टेशन? ग्लोबलाईजेशन के नाम पे बना हौव्वा धवस्त हो रहा है, इसकी उम्र तो नेहरू के यूटोपिया से भी कम निकली। प्रगतिशीलता, उत्तर आधुनिकता और वैश्विक गाँव के दावे के बीच ही अमानवीयता से हद तक दुनियाँ पीड़ित हो गई। तेल से लेके खेल तक पैसे बनाने में मानवता किस चिड़िया का नाम है। झंझट तो वैसे ही दिमाग़ झन्नाए थी कि महान राष्ट्रवादी की उत्पादों की बाढ़ में दबाए पैसे पे नजऱ लग गई, तो निशाना सोनम क्यों! एक जंज़ीर थी, जिसमे जकड़ा था समाज। नए बाज़ार ने तोडा तो कुछ ज़्यादा ही तोडा क़ि बाज़ार में बेचने को ला खड़ा कर दिया। महिला कमोडिटी बन गई। फ़िर नए रास्ते, नई जंजीरें। क्यों है कोई बेवफ़ा? ये तो अपनी मर्ज़ी है। इनकार हा हक़ भी छीनोगे क्या? कुंठा में जीते लोगों के खुश होने का यही तरीका है क्या? सुधर जाओ उनकी ताक़त बढ़ गई है । पॉवर सेंटर्स बदल रहे हैं। समय की नब्ज़ पहचानो….!
( लेखक समाजशास्त्र के अध्येता है। ये उनके निजी विचार हैं )