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28_04_2012-27end106

बेबस मरीज़, कीमती डाॅक्टर….! पढ़ें वरिष्ठ पत्रकार अजीत पाँडेय का लेख

 

28_04_2012-27end106

अजीत कुमार पाण्डेय, वरिष्ठ पत्रकार -दिल्ली
ajit.editor@gmail.co

 

हमारे देश की एक बहुत बड़ी आबादी का जीवन लाचारी भरा है। उनके पास आमदनी का कोई आसान जरिया नहीं है। सरकारें इस बड़ी आबादी की तरफ सिर्फ जुमलेबाजी से काम चला रही है। देश की स्वास्थ्या व्यवस्था संभालने वाले डॉक्टर अगर मोटा रकम खर्च करके एमबीबीएस, एमडी या एमएस डिग्री हासिल करेंगे तो क्या वे लाचार मरीजों के साथ चिकित्सक का रिश्ता ईमानदारी पूर्वक निभा पाएंगे, यह अपने आप में यह एक यक्ष प्रश्न है? ऐसे में उस डॉक्टर के लिए मरीज एक ग्राहक से ज्यादा कुछ नहीं होगा? लेकिन देश के भविष्य निर्माताओं की नजर इस मुद्दे पर नहीं जा रही है। अब कारण कुछ भी हो, पर कीमत तो आम आदमी को ही चुकानी पड़ती है। सरकारें तो देश-प्रदेशों में आती-जाती रहती हैं। सभी ने आखिरी पायदान पर खड़े व्यक्ति के आंसू पौंछने का दम तो भरा है, लेकिन जमीनी सच्चाई कुछ और ही तस्वीर बयां कर रही है। हम कैसे समाज का निर्माण करते जा रहे हैं, इसका अंदाजा हम खुद ही नहीं लग पा रहे हैं और तोहमत लगाए जा रहे हैं। हालांकि लोकतंत्र में तो आम आदमी को केन्द्र में रखकर ही सरकार सभी नीतियां बनती हैं, लेकिन शायद निजी मेडिकल कॉलेज इस दायरे में नहीं आते हों। अब इस बात को सरकार समझना जरूरी होगा कि कम से कम आम नागरिकों को मुफ्त और सस्ता, सर्वसुलभ स्वास्थ्य व्यवस्था उपलब्ध कराने के लिए चिकित्सा क्षेत्र का तो इस तरह से निजीकरण नहीं किया जाना चाहिए, ताकि देश की एक बड़ी आबादी को स्वास्थ्य के क्षेत्र में आजादी मिले। वैसे राज्यों में मेडिकल कॉलेजों चलाने वाले कई संस्थानों के पास विश्वविद्यालय का दर्जा भी मिला हुआ है। आपको बताते चलें कि यह दर्जा सिर्फ नाम मात्र का काम कर रहा है। असल काम तो मनमानी का चल रहा है। सबके अपने नियम-कानून हैं, सबकी अपनी मनमर्जी की फीस है, जो यह लोग खुद ही तय कर रहे हैं। एक वर्ष की फीस तकरीबन दस से बीस लाख कोई ले रहा है, तो कोई तीस लाख भी ले रहा है। फीस लेने का कोई आधारभूत पैमाना नजर ही नहीं आता है? इतना अंतर क्यों और फर्क क्यों है? कोई उत्तर फिलहाल किसी के पास नहीं है। कार्रवाई के नाम पर खानपूर्ति ही हो रही है। वैसे चाहिए तो बहुत कुछ लेकिन फौरी तौर पर कम से कम एमबीबीएस के लिए एक अलग से उच्चस्तरीय फीस समिति बनानी चाहिए। इस बारे में सरकारों को ही पहल करना चाहिए क्यों यह देशहित और जनहित का सबसे बड़ा मसला है। ऐसे विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता के नाम पर ये खेल रोकना जरूरी होगा? अब इनसे जुड़े निजी अस्पतालों का हाल करीब-करीब सभी लोग जानते हैं। सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी की दुहाई देकर जो कुछ किया रहा है, वह सही नहीं है। ये कॉलेज और विश्वविद्यालय डिग्री उत्पादन के फैक्ट्री तो बनकर नहीं रह जाएंगे और इस तरह बने हुए डाक्टर लाइसेंसशुदा या फिर झोलाछाप तो नहीं होंगे? इलाज करने का परमिट तो मिल ही जाएगा, जो पैसा पढ़ाई में लगाया वो भी वसूल हो जाएगा। क्या यही चिकित्सा के पावन पेशे के मूलमंत्र रह जाएंगे। जो मेहनत करके आगे बढ़े हैं, वे पिस जाएंगे या अलग-थलग कर दिए जाएंगे, क्योंकि उनकी संख्या बहुत कम रह जाएगी। अधिक फीस के कारण प्रतिभाशाली रह जाते हैं। समय रहते नहीं जागे तो परिणाम खतरनाक होंगे। जब जमे-जमाए सरकारी कॉलेजों में ही फैकल्टी पूरी नहीं है तो इनमें क्या? निजी मेडिकल कॉलेजों का विरोध नहीं है, अलबत्ता उनकी बेतहाशा बढ़ी हुई फीस उचित नहीं है। कुछ कॉंलेजों में तो फीस के इतर भी बहुत कुछ कारोबार चल रहा है। केंद्र सरकार ने हाल ही में एक अच्छा निर्णय किया कि सभी मेडिकल कॉलेजों में नीट की मेरिट के आधार पर ही एडमिशन दिया जाएगा। इसके बाद कोर्ट-कचहरी से भी निजी मेडिकल कॉलेजों को कोई छूट नहीं मिली। कॉलेज बैंक गारंटी लेकर मस्त है पर इनकी फीस को लेकर सरकार मौन है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है। देश में शायद ही ऐसा कोई निजी मेडिकल कॉलेज हो, जो सारे मापदंड पूरे करते हुए उचित फीस वसूल रहा हो। सरकारें तो बेहतर डॉक्टर बनाने के लिए निजी मेडिकल कॉलेजों पर जरूरत से ज्यादा निर्भर हंै, पर हमें जस्टिस भार्गव की कमेटी से कुछ उम्मीदें है। वैसे न्यायालय में भी फीस को लेकर कई मामले लंबित हैं। कोर्ट ने नीट को लेकर जिस तरह दूध का दूध और पानी का पानी किया, उसी से इन निजी कॉलेजों ने कुछ घुटने टेके हैं। इन कॉलेजों की फीस और गुणवत्ता को लेकर समय रहते कुछ नहीं किया गया, तो स्थिति भयावह होगी। फीस से कमीशन व पैकेज तक हम पहुंच ही चुके हैं। अब देखना यह है कि इस बात को लेकर कोई आन्दोलन कब खड़ा होता है। हालांकि अब इस बात को लेकर सरकारों को कुछ कदम उठाने की आवश्यकता है ताकि देश में स्वास्थ्य सस्ता और मजलूमों को आसानी से मिल सके। एक वाकया आपको उत्तर प्रदेश के नामचीन शहर कानपुर के सरकारी अस्पाल का बताते हैं इससे देश के अन्य राज्यों के सरकारी अस्पतालों की हालत समझना आसान होगा। देश में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का हाल बिलकुल ठीक नहीं है यह अब कोई खबर नहीं रह गई है। डॉक्टरों और कर्मचरियों के अलावा बेड, दवाओं व अन्य सामानों की कमी के साथ-साथ सरकारी तंत्र की संवेदनहीनता का सबसे बड़ा उदाहरण भी सरकारी अस्पतालों में ही दिखता है। इसका सबसे ताजा उदाहारण कुछ दिन पहले कानपुर से मिला जहां एक बड़े अस्पताल में एक व्यक्ति अपने बीमार बच्चे का इलाज कराने ले गया और वहां एक जगह से दूसरी जगह भेजे जाने में हुई देर के कारण उसके बेटे की मौत हो गई। हालांकि ऐसी घटनाएं देश के हर राज्य और हर शहर में होती होंगी, लेकिन चूंकि उत्तर प्रदेश के निवासी आजकल रोज ही किसी न किसी अखबार या टीवी चैनल पर प्रदेश सरकार द्वारा राज्य के विकास के लिए किए गए (या किए जा रहे) काम का बखान देख रहे हैं, इसलिए यह संशय होना स्वाभाविक है कि आखिर सच क्या है। सरकारी अस्पतालों मे भीड़ होना, बेड और स्ट्रेचर की कमी होना और डॉक्टर व अन्य कर्मचारियों, नर्स, तकनीशियन आदि की कमी होना आम बात है, लेकिन आज भी प्रदेश के अधिकतर लोगों के लिए सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के अलावा कोई चारा है नहीं। निजी अस्पताल और तथाकथित नर्सिंग होम और मेडिकल रिसर्च सेंटर हर छोटे-बड़े शहरों और कस्बों में हर गली में खुले हैं लेकिन वहां न डॉक्टर हैं न स्टाफ, और किसी भी मरीज की हालत जरा भी बिगड़ने पर वे उन्हें नजदीक के सरकारी अस्पताल में ही भेजने की सलाह देते हैं। सरकारी अस्पतालों के डॉक्टरों पर बड़ी संख्या में मरीज देखना और संसाधनों की कमी का होना एक बड़ा दबाव है, लेकिन इसके विपरीत यह भी सच है कि वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप हर कुछ साल में वेतन बढ़ोतरी, मनचाही पोस्टिंग पर सालों साल बने रहने की सुविधा, यदि प्रशासनिक पद पर हों तो सामान और दवाओं की खरीदारी, अधीनस्थ कर्मचारियों की नियुक्ति, तबादला और प्रोन्नति का अधिकार, राजनीतिक दलों के नेताओं और सरकार के अधिकारियों से नजदीकी बढ़ाने के मौके भी उन्हीं को मिलते हैं। वर्तमान सरकार ने पिछले चार सालों में केंद्रीय और प्रादेशिक योजनाओं को मिलाकर एक वृहद एम्बुलेंस स्कीम शुरू की, सरकारी अस्पतालों में मुफ्त इलाज, आॅपरेशन और जांच के अलावा मुफ्त दवा देने का ऐलान किया। इसके साथ ही प्रदेश के मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस की सीटें भी बढ़ाई, लेकिन इसके साथ ही पिछले साल घोषित किए गए स्वास्थ्य बजट का बड़ा हिस्सा खर्च न किए जाने के कारण सभी अस्पतालों में बेड, सामान और दवाओं की भारी कमी है। सरकारी सूत्रों का माने तो कई अस्पताल और चिकित्सा केंद्र (प्राथमिक और सामुदायिक) बंद पड़े हैं क्योंकि वहां काम करने वाले लोग और सामान नहीं है। सरकारी अस्पतालों में काम कर रहे डॉक्टरों का कहना है कि कर्मचारी काम नहीं करते और कर्मचारियों का आरोप है कि डॉक्टर मरीज देखने के बजाय निजी काम करते हैं। दोनों ही वर्गों को अपने-अपने काम और उसके बदले मे मिलने वाले वेतन और भत्तों से असंतोष है और वे जितना मिल रहा है उससे कहीं ज्यादा चाहते हैं। तो आखिर समस्या है कहां और इसका समाधान कहां है? क्या डॉक्टरों की कमी से जूझ रहे प्रदेश और देश के सामने इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है? क्या सरकारी अस्पताल ऐसे ही भीड़, धक्कामुक्की, बदइंतजामी, डॉक्टरों और कर्मचारियों के खराब रवैये, बेड की कमी, दवाओं की कमी, दवाओं की कालाबाजारी, समय से इस्तेमाल में न लाए जाने के कारण दवाओं और उपकरणों के बर्बाद हो जाने की खबरों के कारण चर्चा में रहेंगे? क्या उत्तर प्रदेश में पूरे हुए वादे और नए इरादों के पीछे का सच पुराना ही रहेगा? यह कोई रहस्योद्घाटन नहीं है कि बड़े शहरों और जिला मुख्यालयों पर स्थित जिला अस्पतालों में चिकित्सा अधीक्षक की नियुक्ति राजनीतिक सिफारिश से होती है और उन्हें हटाना आम तौर पर आसान नहीं होता। उनमें से अधिकतर को अपने अस्पताल ठीक से चलाने के बजाय अपने पद को बनाए रखने की चिंता सर्वोपरि होती है। बाकी समय उनके कमरों में उनके परिचित, अधिकारी, निजी रिश्तेदार या दोस्तों की भीड़ रहती है जिनके इलाज के लिए फोन और पर्ची का इस्तेमाल होता है। इसी तरह पैरा-मेडिकल स्टाफ, वार्ड ब्वाय और लैब तकनीशियन भी अपने लोगों के लिए जुगाड़ में ही लगे ज्यादा दीखते हैं। ऐसे में यदि कोई मरीज आए तो उसके लिए या तो इमरजेंसी में जगह होनी चाहिए या उसे ओपीडी में देखा जाना चाहिए, चूंकि इमरजेंसी में आकस्मिक चिकित्सा के लिए आए मरीजों के लिए बाद में सम्बंधित वार्ड में जगह नहीं होती, इसलिए वे इमरजेंसी में ही रहते हैं। तो अब नए आए मरीज को इंतजार करने या वापस भेजे जाने के अलावा कोई चारा है? बजट और सरकारी घोषणाओं में अस्पतालों के विस्तार के पीछे वास्तव में सच्चाई यही है कि अस्पतालों के सुधार के लिए वहां शीर्ष पर बैठे व्यक्ति चाहे वह अधीक्षक हों या किसी और नाम से जाना जाता हो की ही जिम्मेदारी सबसे ज्यादा होती है। यदि किसी भी सरकारी अस्पताल या मेडिकल कॉलेज में कुछ सराहनीय काम हुआ है उसके लिए कोई न कोई भूतपूर्व या वर्तमान अधीक्षक ही याद किया जाता है, और कर्मचारी याद करते हैं कि उक्त साहब के रहते ही कुछ अच्छा काम हुआ था। यही हाल छोटे अस्पतालों या चिकित्सा केंद्रों का भी है। सच तो यही है कि चूंकि ऐसे सभी पद राजनीतिक कारणों से भरे जाते हैं और शायद भ्रष्टाचार भी एक कारण हो सकता है, इसलिए इन पदों पर बैठे लोग अपने काम करने मे रुचि न दिखाकर दोष किसी और पर या किसी और स्थिति पर डालने की फिराक में रहते हैं, और सरकार के पास काम न करने वालों पर कार्रवाई करने का विकल्प नहीं है क्योंकि डॉक्टरों और अन्य स्टाफ की कमी के कारण यदि सख्ती की जाती है तो जो अभी काम कर रहें हैं उनके भी छोड़कर चले जाने का डर है।

 

( लेखक , जाने माने पत्रकार हैं,ये उनके विचार हैं )

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